मगध के दामन में बिहारी दाग

मगध के दामन में बिहारी दाग

बाकेबिहारी पाठक।“बिहार मतलब बुद्धिमता, बिहार मतलब बहादुरी, बिहार मतलब बगावत” ये कथन हिंदुस्तान के प्रतिष्ठित शिक्षक के हैं। भला हो भी क्यों न? बिहार के इस मिट्टी ने वाशिष्ट नारायण जैसे बुद्धिमान गणितज्ञ, अशोक जैसे चक्रवर्ती सम्राट और जयप्रकाश नारायण जैसे बागी नेता जो जन्मे है। देश के राजनीति में सक्रिय किरदार निभाने वाला बिहार आज अपमान के दंश को झेलते हुए बदहाली के इस कगार पर आ गया है कि यहां के प्रतिष्ठित लोग खुद को बिहारी बताने से लरजते है।

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एक दौर था जब स्वर्ण कालीन भारत के चमकते ललाट पर सुगंधित चंदन का तिलक था बिहार। बिम्बिसार, चंद्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक और हर्षवर्धन जैसे वैश्विक शासकों का जन्मदाता न सिर्फ कुशल शासन और सबसे ज्यादा भौगौलिक क्षेत्र अधिपत्य वाला राज्य था बल्कि नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के रूप में शिक्षा का अनूठा उदाहरण होते हुए विश्व की अगुआई करता था, लेकिन आज बिहार अपराध, बेरोजगारी और कुशासन का प्रतीक बन गया है।

1974 में छात्र आन्दोलन वाली संपूर्ण क्रांति की ज्वाला की ताप से जब राजगद्दी हिल गई और पुरे भारत ने बिहार की तरफ पलट के देखा था तब ऐसा लगा था अब देश को कुशल शासन का प्रतिनिधित्व बिहार से ही मिलेगा, परन्तु आज अधिकांश प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक होने के बाद छात्र भविष्य की चिंता में जब आंदोलन करते है तो उनके आवाज को अपने ही राज्य में लाठी डंडों से दबा दिया जाता है।

इत्तेफाक से ही कोई ऐसा नौकरी का पेपर होता है जो बिना लीक हुए या रद्द हुए नौकरी देने की सारी प्रक्रियाएं पूरा करता हो। कुर्सी के लालच में लिप्त सत्ताधिशों को ये खबर कहा की उनके राजनितिक रोटी सेंकने के चक्कर में कितने बिहारियों के भविष्य जल रहे है।

जब हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की क्रांति की बिगुल बजी तो बिहार इसमें भी 80 साल के वीर कुंवर सिंह के रूप में आगे खड़ा मिला। 1917 में सत्याग्रह और 1974 में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का साक्षी रहे बिहार की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ। 1950 में भारत के गणतांत्रिक राष्ट्र बनने के बाद जहां आक्रमण और गुलामी से पूरा देश उबर रहा था वही बिहार में कोई विशेष बदलाव नहीं देखने को मिला, अनेकों मुख्यमंत्री बदले लेकिन बिहार के रूप रेखा में कोई बदलाव नहीं हुआ।

अगर हम पिछले 3 दशक की बात करे तो बिहार की हालत और भी नाजुक हुई है। वर्ष 2000 में बिहार के टुकड़े होने के बाद ज्यातर खनिज वाला क्षेत्र झारखंड में चला गया, जिसने घाव पर नमक लगाने का काम किया। इसके बाद बिहार में अपराध, बेरोजगारी और नौकरी के लिए पलायन चरम पर चला गया, जिससे देश में बिहार की छवि हीनता वाली बन गई। उस समय से राज्य के बाहर बिहारियों को कुदृष्टि से देखा जाता है।

महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण के राज्यों में बिहारियों से अभद्रता एक प्रथा बन गई है। बिहारी शब्द गाली के तौर पर उपयोग किया जाने लगा है। इन सबकी जिम्मेदार पिछली 3 दशकों की सरकार है। 90 के दशक से लेकर आजतक बिहार में सता परिवर्तन ना के बराबर हुआ है। ना ज्यादा सरकार बदली है ना ही छवि। हालांकि मौजूदा सरकार तो सुशासन, शिक्षा, रोजगार और विकास का दावा तो करती है लेकिन देश का विकास दर और बिहार का विकास दर देखे तो बिहार पिछड़ता ही गया है।

मार्च 2023 के नेशनल स्टेटिस्टिक्स ऑफिस के रिपोर्ट के अनुसार जहां भारत की प्रति व्यक्ति आय 1 लाख 70 हजार के करीब है तो वही बिहार की प्रति व्यक्ति आय महज 50 हजार के करीब ही है। चंद्रगुप्त के काल के दौरान जहां बिहार के पास सबसे ज्यादा जमीन था वही आज भूमिहीनों के मामले में बिहार अव्वल है। अगर गौर किया जाए तो मौजूदा सरकार ने शिक्षा और विकास का अच्छा रोडमैप तैयार किया था, लेकिन देश की विकास के गति के अनुसार काफी धीमा है या यूं कहे तो अब रुक सा गया है।

एक दशक पहले तो अपराध में काफी सुधार हुआ था लेकिन फिलहाल देश में अपराध में पांचवे स्थान के साथ सरकार का ये दावा भी झूठा साबित हो गया है। बेरोजगारी में बिहार में कोई बदलाव नहीं हुआ है। भारत में बेरोजगारी के मामले में चौथे स्थान पर विराजमान है। ना ही यहां के लोग अपने रोजी के लिए सरकार से मांग करते है और नाही सरकार उद्योग लगाती है नाही निवेश के आयाम देखती है।

एक समय सबसे ज्यादा IAS, IPS देने वाला बिहार हिंदुस्तान के हर कोने में मजदूर सप्लाई करने वाला फैक्ट्री बन गया है। बेरोजगारी इतनी चरम पर है कि यहाँ के 40-50% युवा महज 10 से 12 हजार तक के नौकरी के लिए दूसरे राज्यों में धक्के खाते और गाली सुनते हुए पलायन करतें है। पलायन का ये रीत सिर्फ गरीबों के साथ ही नहीं लागू है, बिहार के अमीर, शिक्षित और समृद्ध परिवार भी यहां से बेहतर शिक्षा, सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए लगातार पलायन के पथ का चयन कर रहे है।

बिहार शासनाध्यक्षों के दरबार में नर्तकी का वो घुंघरू बन के रह गया है जिसके झंकार दूसरों के दरबारों में रौनक तो बढ़ाती है लेकिन खुद की पहचान पैरों तक ही सिमट गया है। शिक्षा का ये स्थिति है कि 12वीं तक की मुफ्त शिक्षा उपलब्ध होने के बावजूद निजी कोचिंग संचालन का व्यापार आसानी से फल फूल रहा है। राज्य के निजी कोचिंग संस्थाओं का ज्यादा प्रतिशत नौकरी की तैयारी ना करवाने वालों के बजाय 10वीं और 12वीं की परीक्षा पास करवाने वालों की है।

प्राथमिक से लेकर उच्चतर शिक्षा का हाल इतना दयनीय है कि भारत में यूजीसी के शीर्ष 50 विश्वविद्यालयों में एक भी बिहार का विश्वविद्यालय नही शामिल है। यहां स्कूल का काम भोजन वितरण और कॉलेज का काम डिग्री वितरण तक सीमित रह गया है। 2015 में लागू शराब बंदी के बाद बिहार में युवा शराब तस्करों की संख्या काफी बढ़ी है। कम उम्र के बच्चो में नशाखोरी अब हर गली मोहल्ले में देखने को मिल रहा है।

अगर ऐसा ही चलता रहा तो नशा खोरी में बिहार जल्द ही पंजाब को भी पछाड़ देगा। हालांकि पंजाब बिहार से भौगौलिक और आर्थिक रूप से काफी मजबूत है। सरकार द्वारा समय-समय पर शराब तस्करी और नशाखोरी पर कानून भी बनाए जा रहे है, लेकिन सख्ती से पालन ना होने की वजह से तस्करों की संख्या बढ़ती ही जा रहीं है।

रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन और विद्यापति के कलम की दहाड़ वाला बिहार आज अपमान का आदि है। राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश नारायण और वशिष्ठ नारायण के द्वारा देश को नया आकार देने वाला बिहार आज पिछड़ापन का पर्याय है। चन्द्रगुप्त, अशोक और वीर कुंवर सिंह जैसे वीर योद्धाओं का जन्मदाता बिहार आज सबसे ज्यादा अपराध से जूझ रहा है। हिंदुस्तान के स्वर्णिम काल से लेकर आजादी की लड़ाई लड़ने में इतिहास के पन्नो को अपने नाम करने वाले बिहारी आज गुमनामी और बदनामी की जिंदगी जी रहे है।

इस दौर में अगर देश या विदेश में कोई बिहारी बहुत बड़ा काम कर रहा है तो दूर तक उसका बिहार से कोई वास्ता नहीं होता है। वर्तमान परिदृश्य में अगर हमें बिहार का अच्छा व्यक्तित्व बनना है तो मूलभूत संसाधनों और सुविधाओं की अभाव की वजह से बिहार की भूमि को त्यागना ही पड़ेगा। बिहार के इस दुर्दसा के जिम्मेदार सिर्फ राजनीतिक मंच से अपने साध्य साधने वाले ही नही है, इसके जिम्मेदार बिहार के हर वो नागरिक है जो धर्म और जाति देखकर अपना प्रतिनिधि चुनते है। शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी मूलभूत चीजों को छोड़कर अपने जाती का नेता चुनते है।

चुनाव के समय में ट्रेन के जनरल डब्बे में गाली और धक्का खाते हुए बिहार आना, अपने जाती का नेता चुनना फिर वापस उसी डब्बे में मवेशियों की तरह भर कर चले जाना एक परंपरा बन गई है। इनको लगता है इन्होंने सरकार चुनी है, जबकि ये नेताओं के दिए विकल्प को चुनते है और अपने हक तथा अधिकार की बात ना करके दुसरे राज्य के राजस्व बढ़ाने चले जाते है। जिस सरकार से हमे अपने जरूरतों को पूरा करने की अपेक्षा होनी चाहिए उसे हम पूरे साल निक्कमा बताते है, उनकी नाकामियों को गिनाते है और चुनाव के समय अपनी जाति देख कर फिर से उन्ही का राजतिलक कर देते है।

वर्तमान माहौल में जो बिहार हमे इतना प्यारा है उसका सिर्फ एक ही कारण है कि ये हमारी जन्म भूमि है। अगर बिहार में लोगो को बदलाव देखना है और पुनः वो गौरव प्राप्त करना है तो ये समझना होगा की बौद्ध, जैन और सिख धर्मो का सत्कार करने वालो बिहार को आज हर जगह जलील क्यूं होना पड़ता है। कोमल कुंवर सिद्धार्थ को ज्ञान प्रदान कर बुद्ध बनाने वाले बिहार को आज खुद पढ़ाई करने दूसरे राज्य क्यूं जाना पड़ता है।

अगर बिहार के प्रत्येक नागरिक अपने अधिकार, कर्तव्य और दायित्वों के प्रति जागरूक हो जाए तथा अपने रोजगार, हक और मूलभूत जरूरतों को समझने लगे तो इसकी तस्वीर बदलने में ज्यादा देर नहीं लगेगी। धर्म और जाति से परे उठ कर सोचने लगे तो सरकार भी अपने दायित्वों का निर्वहन ईमानदारी से करने लगेगी। तब दूसरे प्रदेश के लोगो को भी समझ आ जाएगा कि …

  • जो अशोक की तलवार और दिनकर की कलम का धार है वही बिहार है।
  • जो सिख, जैन और बुद्ध का आवतार है वही बिहार है।
  • जगजीवन, जे पी और राजेंद्र से प्रकाशित संसार है वही बिहार है।
  • नालंदा बन जो विश्व का करता उद्धार है वही बिहार है।
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