भारत का वो गांव जो आज भी अंग्रेजों का गुलाम है

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हरियाणा का रोहनात गांव

पुष्पांजलि शर्मा। भारत को आजाद हुए 72 साल हो गए हैं लेकिन आज भी आजादी के शहीदों को याद करके आंखें नम हो जाती हैं। कुछ ऐसा ही दर्द दिल में तब उभर आता है जब जलियांवाला बाग का जिक्र होता है। सुनते ही आपकी आंखों के सामने दुख, दर्द, चीख, पुकार, मौत और क्रूरता का मंजर दौड़ने लगता है। साल 1919 में अंग्रेज़ी हुकूमत ने सैकड़ों निहत्थों का नरसंहार किया था।

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इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली तारीख थी 29 मई 1857। हरियाणा के रोहनात गांव में ब्रिटिश फौज बर्बर खूनखराबे को अंजाम देने के लिए घुस गई। गांव वालों से अपनी बेइज्ती का बदला लेने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के घुड़सवार सैनिकों ने पूरे गांव को नष्ट कर दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज को कत्लेआम मचाता देख लोग गांव छोड़कर भागने लगे और पीछे रह गई वो लहू-लुहान तपती धरती जिस पर दशकों तक कोई आबादी नहीं बसी।

11 मई 1857 को दिल्ली में शुरू हुए पहले स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी हिसार और हांसी भी पहुंची थी। हांसी में अंग्रेजों की छावनी होती थी। 1857 की 29 मई को मंगल खां के विरोध का साथ देते हुए रोहनात के स्वामी बरण दास बैरागी, रूपा खाती व नौंदा जाट सहित हिंदू-मुस्लिम एकत्रित होकर हांसी आ गए। विद्रोह में रोहनात के ग्रामीणों ने भी अंग्रेजों पर हमला बोला। इसमें हुकूमत के अफसर सहित 11 अंग्रेज मारे गए। हिसार में भी 12 अफसर मारे गए। हमले के दौरान क्रांतिकारियों ने वहां से सरकारी खजाना भी लूटा, इसके अलावा जेल में बंद भारतीय कैदियों को रिहा भी करवा दिया।

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बात जब अंग्रेजों के आला-अफसरों तक पहुंची तो उन्होंने विरोध की चिंगारी दबाने के लिए अपनी सबसे खतरनाक माने जाने वाली पलटन-14 को हांसी जरनल कोर्ट लैंड की अगुवाई में भेजा। अंग्रेजों ने गांव पुट्ठी मंगल पर तोपें लगवाकर रोहनात पर हमला बोला। इसके अलावा अन्य गांवों को भी आग लगा दी गई। रोहनात पर हुए सितम में सैकड़ों लोग मारे गए। गांव के बिरड़ दास बैरागी को तोप पर बांध कर उनके चिथड़े उड़ाए दिए गए।

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रोहनात गांव, जो आज भी है गुलाम

गांव वालों से बदला लेने के लिए ब्रिटिश सेना की टुकड़ी ने रोहनात गांव को तबाह कर दिया। बागी होने के संदेह में उन्होंने निर्दोष लोगों को पकड़ा। पीने का पानी लेने से रोकने के लिए एक कुएं के मुंह को मिट्टी से ढक दिया और लोगों को फांसी पर लटका दिया। डेढ़ सौ साल बीत जाने के बाद आज भी गांव उस सदमे से उबर नहीं सका. गांव के बुजुर्ग कुएं को देख कर उस डरावनी कहानी को याद करते हैं। गांव के घरों को तबाह करने के लिए आठ तोपों से गोले बरसाए गए। जिसके डर से औरतें और बच्चे बुजुर्गों को छोड़ कर गांव से भाग गए।

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अंधाधुंध दागे गए गोलों की वजह से लगभग सैकड़ों लोग पकड़े गए कुछ लोगों को गांव की सरहद पर पुराने बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई। जिसने भी ब्रिटिश अधिकारियों को मारने की बात कबूल की, उन्हें तोप से बांध कर उड़ा दिया गया| इस घटना के महीनों बाद तक यहां कोई इंसान नजर नहीं आया। पूरे गांव की जमीन को नीलाम कर दिया गया।

अंग्रेजों का कहर यहीं खत्म नहीं हुआ। पकड़े गए कुछ लोगों को हिसार ले जाकर खुले आम बर्बर तरीके से एक बड़े रोड रोलर के नीचे कुचल दिया गया ताकि भविष्य में ये बागियों के लिए सबक बने। जिस सड़क पर इस क्रूरता को अंजाम दिया गया उसे बाद में लाल सड़क का नाम दिया गया।

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हैरानी की बात है कि गांव के लोगों की मांगों को मानने के लिए प्रदेश की सरकारों के लिए सात दशकों का समय भी कम साबित हुआ है। गांव वाले खेती के लिए जमीनें और आर्थिक मुआवजे की मांग कर रहे हैं। सालों पहले जो थोड़ा बहुत आर्थिक मुआवजे की घोषणा की गई थी वो अब तक नहीं मिला।

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