पुष्कर कुमार। आरक्षण का लाभ गरीबों को मिलना चाहिए। वास्तव में आरक्षण उन लोगों के लिए है जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक से रूप से पिछड़े हुए हैं। आजादी के बाद 10 सालों के लिए आरक्षण की शुरुआत की गई थी। लेकिन आज के दौर में विभिन्न पार्टियों द्वारा अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए 10- 10 साल के अंतराल पर इसे बढ़ाने का काम किया जाता रहा है।
सही मायने में देखा जाए तो नौकरशाह, राजनेता, उच्च अधिकारी और अन्य लोग जो आर्थिक रूप से सबल है, उन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए। सभी वर्ग जो आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं, उन्हें इसका लाभ मिलना चाहिए। जो लोग सभी दृष्टिकोण से समर्थ हैं, उन्हें आरक्षण स्वत: छोड़ देना चाहिए।
आरक्षण का मूल अर्थ प्रतिनिधित्व करना है। आरक्षण कभी भी पेट भरने का साधन नहीं हो सकता है बल्कि आरक्षण दबे-कुचले लोगों को समाज में प्रतिनिधित्व करने का मौका देना है। समाज में रहने वाले उन वर्गों या समुदायों जो उसी समाज में रहने वाले अन्य वर्गों या समुदायों से आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। आरक्षण उन्हें नैतिकता के आधार पर बराबरी में लाने की एक व्यवस्था है।
आजादी के पहले आरक्षण
देश आजाद होने से पहले आरक्षण की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। हंटर आयोग का गठन 1901 से पहले और 1882 के बाद की गई थी। जिसमें महात्मा ज्योतिराव फुले ने निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के साथ सरकारी नौकरियों में सभी के लिए अनुपातिक आरक्षण प्रतिनिधित्व की मांग की थी।
महाराष्ट्र की रियासत कोल्हापुर में शाहू महाराज के द्वारा आरक्षण की शुरुआत 1901-02 में की गई थी। इनके द्वारा वंचित समुदाय के लोगों के लिए नौकरियों में 50 फ़ीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। उस समय आरक्षण को लेकर यह पहला राजकीय आदेश था। इस मौजूदा प्रणाली को सही मायने में 1933 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड के समक्ष पेश किया गया। भारत में 1946 में कैबिनेट मिशन की सिफारिशों के साथ अनुपातिक प्रतिनिधित्व का प्रस्ताव दिया गया।
आजादी के बाद आरक्षण
1947 में भारत आजाद हुआ। इसके बाद एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के लिए कई फैसले लिए गए। 26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करने के लिए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किया गया। इसके अलावा 10 सालों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से आरक्षण की शुरुआत हुई।
1953 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए कालेलकर आयोग की स्थापना की गई। फिर उनसे 1979 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के मूल्यांकन के लिए मंडल आयोग बना। 1980 में आयोग ने रिपोर्ट पेश किया। रिपोर्ट में आरक्षण कोटा में बदलाव करते हुए 22 फीसदी से बढ़ाकर 49.5 फीसदी कर दी गई।
आयोग के सिफारिशों को बी पी सिंह की सरकार ने लागू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की गई थी। कोर्ट ने इस व्यवस्था को वैधानिक ठहराते हुए आरक्षण को 50% से ज्यादा ना करने का आदेश दिया। संविधान के अनुच्छेद 15(4) के अनुसार यदि राज्य चाहे तो सामाजिक, आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए आरक्षण का विशेष प्रावधान कर सकता है।
आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं – सुप्रीम कोर्ट
1990 में पदोन्नति में आरक्षण पर बहस फिर से शुरू हुआ। 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद यह मामला सुर्खियों में आया। संसद में 1995 में 77वें संविधान संशोधन द्वारा आरक्षण को जारी रखा गया। केंद्र और राज्य सरकार को अधिकार है कि वह पदोन्नति में भी आरक्षण दे सकते हैं। लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया तो कोर्ट ने निर्णय दिया कि आरक्षण तो दिया जा सकता है लेकिन वरिष्ठता नहीं।
पदोन्नति में आरक्षण बड़ी समस्या बन गई है। इसकी मांग समय-समय पर उठती रहती है। अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करने से इंकार कर दिया। अदालत ने कहा कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है। ये मामला तमिलनाडु का था जहाँ राजनीतिक दलों ने मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए ऑल इंडिया कोटा में ओबीसी को 50 फ़ीसदी आरक्षण देने की मांग की थी। कोर्ट ने साफ-साफ राजनीतिक दलों को मद्रास हाईकोर्ट जाने को कहा।
जस्टिस एल नागेश्वर राव की पीठ ने कहा कि आरक्षण का अधिकार मौलिक नहीं बल्कि कानूनी है। जिनको लगता है कि मौलिक अधिकार का हनन हो रहा है। अनुच्छेद 32 उनके लिए उपलब्ध है। पीठ ने कहा कि आरक्षण के अधिकार को व्यक्ति अपना मौलिक अधिकार नहीं कह सकता है। ऐसे में आरक्षण का लाभ नहीं देना किसी भी तरह से संविधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है।
याचिकर्ताओं की दलील थी कि तमिलनाडु में ओबीसी, एससी और एसटी के लिए 69 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है। जिसमें ओबीसी का हिस्सा 50 प्रतिशत है। 50 फ़ीसदी सीटों पर ओबीसी उम्मीदवारों का एडमिशन होना चाहिए। ऑल इंडिया कोटा के तहत सीटों को मंजूरी ना देना असंवैधानिक है। यह संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता है और संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के खिलाफ है।
आरक्षण के मार से प्रतिभावन व्यक्ति की प्रतिभा पर कुंठराघाट होता है। इससे समाज के अलग-अलग वर्गों में खाई उत्पन्न होती है। सरकार को इस मसले पर विचार करने की जरूरत है। जाति के आधार पर नहीं आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को इसका लाभ देने का प्रावधान लागू किया जाना चाहिए।
✍पुष्कर कुमार
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