कोरोना का संक्रमण थमेगा और जिंदगी अपनी पटरी पर भी लौटेगी। इसमें विज्ञान के साथ कुदरत का भी योग होगा। लेकिन इस महामारी से निपटने के तुरंत बाद बहुत सारे लोगों की जिंदगी की रफ्तार वह नहीं होगी, जोकि 24 मार्च से पहले थी। इसका अंदाजा 25 से 30 मार्च के दृश्य को देखकर लगाया जा सकता है। यह दृश्य उन प्रवासी मजदूरों-कामगारों की अंतहीन मजबूरियों का हिस्सा है, जो न जाने क्या आस लेकर अपने घरों से कोसों दूर आए थे और इस महामारी के चलते अपने दो वक्त की रोटी के लिए सबकुछ छोड़ अपने घरों की ओर पैदल ही चल पड़े।
जैसा कि कहा जाता है कि हमारा देश दिन रात उन्नति की राह पर चल रहा है। लेकिन इस महामारी के चलते उन लाखों गरीबों की कहानी का मंजर सामने आ गया। यही वह मौका है जब सत्ता प्रतिष्ठान ईमानदारी से पड़ताल करें कि हमारे भारतीय सत्ता तंत्र को हाशिये के लोगों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने के लिए और क्या-क्या कदम उठाएं जाएं। तब और, जब खुद सरकार का 2018-2019 का इकोनॉमिक सर्वे कहता है कि देश का हर तीन में से एक कामगार न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत संरक्षित नहीं है।
साल 2011 के जनगणना के मुताबिक, भारत में वैसे भी प्रवासी लोगों की संख्या इतनी अधिक है कि उनको अनदेखा नहीं किया जा सकता है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश में अपने मूल निवास से दूर जाकर काम करने वालों की आबादी लगभग 14 करोड़ थी। जिससे साफ जाहिर होता है कि पिछले वर्षों में ये आंकड़े और भी तेजी से बढ़ें होंगे। इसकी एक बानगी तो 2017 का आर्थिक सर्वेक्षण ही पेश कर देता है। साल 2011 से 2016 के बीच अंतर-राज्यीय प्रवासियों की संख्या सलाना करीब 90 लाख रही है। इनमें ज्यादातर वो प्रवासी हैं जो बिहार व उत्तर प्रदेश से आते हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश के अलावा मध्य प्रदेश, राजस्थान और बंगाल से भी प्रवासी बड़े शहरों में अपनी रोजी-रोटी के लिए आते हैं। अब सवाल यह उठता है कि बिहार व उत्तर प्रदेश के लोगों ने ही सर्वाधिक पलायन क्यों किया? तो बता दें कि हाल ही के कुछ दशकों में अप्रवासी भारतीयों के लिए तमाम नीतियां बनी है, लेकिन क्या इसी देश के भीतर किसी भी सरकारी तंत्र ने प्रवासी कामगारों की पीड़ा सुनी? कोरोना का संक्रमण भारत में फैलने के बाद इन मजदूरों की हालत दुखदायी हो गई।
वो प्रवासी जो न तो आज के साक्षर भारत में इतने पढ़े-लिखे हैं और न उनका ताल्लुक किसी राजनीतिक घरानें से है… वो ऐसे लोग हैं जो केवल अपने परिवार और बच्चों के लिए अपने घरों से सैंकड़ों मील दूर पलायन को मजबूर हैं। आखिर क्यों वो मजदूर देश के अलग – अलग कोने से भीड़ से भरी सड़कों पर दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों से बेसुध हो निकल पड़े? सवाल यह भी है कि आखिर क्यों इन मजदूरों के पास अब भी दो वक्त की रोटी के आलावा अगले दिन के पानी का भी कोई ठिकाना नहीं?
जब देश में मीडिया के जरिए ये तस्वीरें देशभर में लोगों तक पहुँची तो उन मजदूरों की बेबसी आंखों में आंसू बनकर छलक गई। खैर हर विपदा अपने पीछे कई अहम सबक छोड़ जाती है। कोरोना संक्रमण ने भी अभी तक कई खट्टे-मीठे अनुभव दिए हैं… जहां दुनिया के कई संपन्न देश तमाम संसाधनों के बावजूद हताश दिख रहे हैं, वहीं कई आभावों के बीच भारतीय समाज के लोगों में बहुत बैचेनी नहीं दिखती तो इसके पीछे की वजह केवल सामाजिक ताना-बाना है। वहीं तमाम शिकवे-शिकायतों के बावजूद यहां के लोग आधा निवाला बांटने में भरोसा रखते हैं।
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