कुचल, मसल दो उन सबको अब, चैन जिन्होंने छीना है।
और आस अब बड़ी वतन की, अरमान बड़ा कर आये हैं।
नाज हमें है उन वीरों पर, जो शान बड़ा कर आए हैं।
अंशुल त्यागी। सुकमा के घने जंगलों में घात लगाकर हमला करने वाले नक्सलियों का घाव अब नासूर बन गया है। अब छत्तीसगढ़ के जंगलों में छुपकर जवानों पर हमला करने वाले वहशियानों को उसी भाषा में समझाने का समय आ गया है, जिस भाषा में किसी दहशतगर्द या देश के किसी दुश्मन को समझाया जाता है। पिछले कई दशकों से जंगल, जमीन और आदिवासी संघर्ष के नाम पर जारी ये खूनी खेल अब सरकार के सामने सबसे गंभीर सवाल बनकर खड़ा है।
सीमा पर एक-दो जवानों की शहादत से जहां देश में कोहराम मच जाता है, वहीं देश के अंदर ही जवानों की शहादत का ये खेल बदस्तूर जारी है। सत्ता के बदलने से देश पर फर्क पड़े या नहीं लेकिन इन दरिंदों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता… आखिर क्यों ?
छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सलियों ने इस साल के सबसे घातक हमले को अंजाम दिया। माओवादी 300-400 की तादाद में घात लगाए बैठे थे और दोपहर करीब 12.25 बजे नक्सलियों ने एक आईईडी ब्लास्ट कर जवानों पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी जिसमें सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद हो गए। अपनी खूनी जंग में नक्सली अक्सर बंदूक के जोर पर गांव के भोले-भाले लोगों को अपनी ढाल बनाते हैं। लेकिन बुर्कापाल में 25 जवानों को शहीद करने के लिए इस बार स्थानीय लोगों से रेकी करवाई गई थी।
पिछले दस साल के नक्सली हमलों का आंकडा उठाकर देखे तो पता चलता है कि देश के दूसरे राज्यों में हमलों में मारे जाने वाले जवानों की जितनी संख्या रही है तकरीबन उसके 50 प्रतिशत जवान अकेले छत्तीसगढ़ में मारे जाते रहे हैं। सुकमा के जंगल एक खूनी पहेली की तरह है जहां रह-रहकर हमारे जवानों का लहू बहाया जाता है। क्या ये खूनी सिलसिला कभी खत्म होगा? क्या नक्सलियों को ये बताया जाएगा कि बस बहुत हुआ? अब सब्र की इंतेहा हो गई है…
आखिर सरकार इस हमले को लेकर क्या कदम उठाएगी? क्या हमारे जवानों की शहादत का बदला इन नक्सलियों से लिया जाएगा? ये एक बड़ा सवाल है।
मैं भारत मां के शीश मुकुट की शान हूं।
कठिनाई से लड़ता सहता, मैं सेना का जवान हूं॥
वन्दे मातरम्…
अंशुल की कलम से…
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