दिल्ली का जनादेश राजनीति के लिए सबक है

दिल्ली का जनादेश

फिर एक बार भाजपा देश का दिल यानी दिल्ली जीतने में विफल रही। दिल्ली के मतदाताओं ने विश्व की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के बजाय अराजनीतिक लोगों की बहुतायतवाली महज चंद साल पुरानी आम आदमी पार्टी (आप) पर भरोसा जताया। भरोसा भी ऐसा कि तमाम दावों के बावजूद सत्ता के मुकाबले में दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आया।

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राजनीतिक दल और नेता एक कार्यकाल के बाद मिलने वाली पराजय के लिए सत्ता विरोधी भावना की आड़ लेते नजर आते हैं, लेकिन आयकर अधिकारी की नौकरी छोड़कर सूचना का अधिकार कार्यकर्ता से राजनेता बने अरविंद केजरीवाल की अगुवाई में आप तीसरी बार दिल्ली में सरकार बनाने जा रही है। बेशक मुफ्त सुविधाओं के विस्तार का लोक लुभावन वायदा करने का लोभ संवरण केजरीवाल भी नहीं कर पाये, पर मानना पड़ेगा कि उन्हें यह जनादेश कामकाज के बल पर ज्यादा मिला है, वरना मुफ्तखोरी के वायदे करने में तो कांग्रेस-भाजपा, आप से भी आगे निकल गये थे।

आत्मघात पर आमादा नजर आ रही कांग्रेस ने तो यह दिल्ली विधानसभा चुनाव ढंग से लड़ा ही नहीं, लेकिन भाजपा ने तो पूरी ताकत झोंक कर इसे जंग जैसा ही बना दिया था। मतदान से लगभग एक पखवाड़े पहले ही जगत प्रकाश नड्डा ने पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में भाजपा की कमान संभाल ली थी, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ही मुख्य मोर्चा संभाले नजर आये। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी प्रचार के अंतिम दिनों में चिर परिचित शैली में कुछ रैलियां कीं, नड्डा भी लगातार सक्रिय रहे, पर सेनापति की भूमिका में अमित शाह ही नजर आये।

अपनी छवि के अनुरूप शाह ने आक्रामक अंदाज में विरोधियों पर चौतरफा हमला बोलने में कोई कसर नहीं छोड़ी। शाहीन बाग के बहाने सीएए, एनआरसी, एनपीआर से लेकर पाकिस्तान परस्ती तक के मुद्दे जोर-शोर से उठाये जाने से ऐसा लगने लगा। मानो चुनाव एक अपूर्ण राज्य दिल्ली की सरकार के बजाय देश की सरकार चुनने के लिए हो रहा हो। खासकर टीवी न्यूज चैनलों पर ज्ञान बांटने वाले स्वयंभू राजनीतिक पंडितों को सुनकर तो ऐसा लगा भी कि शाहीन बाग के जरिये आप की बढ़त रोक कर भाजपा लंबी छलांग लगा सकती है।

लेकिन वातानुकूलित कमरों में बैठ कर आंकड़ों की बाजीगरी के सहारे जमीनी हकीकत नहीं समझी जा सकती, और जमीनी हकीकत यही है कि कभी-कभी अपनी टिप्पणियों और हरकतों से समझदार लोगों को चिढ़ाने की हद तक चले जाने के बावजूद केजरीवाल दिल्ली के आम आदमी के दिल पर अभी भी राज कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें उसकी नब्ज पता है।

भाजपा को नकारे जाने के साथ ही दिल्ली के मतदाताओं, खासकर हिंदू मतदाताओं की राष्ट्रभक्ति और विवेक पर सवाल उठाने का खेल सोशल मीडिया पर शुरू हो गया है, लेकिन आम आदमी की नब्ज समझने के लिए भक्तों को कल्पना के मूर्खलोक से निकल कर यथार्थ की कठोर जमीन पर उतरना पड़ेगा। इसमें दो राय नहीं कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र और विशाल देश भारत को चलाने के लिए एक स्थिर सरकार और मजबूत नेतृत्व चाहिए। इसीलिए पिछले चुनावी वायदों पर अमल न हो पाने के बावजूद देश के मतदाताओं ने पिछले साल हुए सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी के नाम पर भाजपा को पहले से भी अधिक प्रचंड बहुमत सरकार बनाने के लिए दिया।

बेशक उसमें यह जन आकांक्षा निहित है कि मजबूत नेतृत्व में एक स्थिर सरकार बेरोजगारी, मंदी और महंगाई सरीखी मारक चुनौतियों से पार पाते हुए सर्वांगीण विकास के जरिये देश को सही दिशा दे पायेगी। निश्चय ही इस जन आकांक्षा की कसौटी पर मोदी सरकार अगले लोकसभा चुनावों में ही कसी जायेगी। इसलिए पिछले साल लोकसभा चुनावों के बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन को मोदी सरकार पर जनमत संग्रह मान लेना उतना ही गलत होगा, जितना राष्ट्रीय और भावनात्मक मुद्दों पर विधानसभा चुनावों में वोट की अपेक्षा करना।

जाति-धर्म जो भी हो, आम आदमी की अपेक्षाएं बहुत ज्यादा नहीं हैं, पर उसे जीवन के लिए जरूरी पानी, बिजली, शिक्षा और स्वास्थ्य तो अपनी पहुंच के अंदर चाहिए ही। कहना नहीं होगा कि अपूर्ण राज्य की सीमाएं जानते हुए भी अपने कार्यकाल के शुरू में केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मोदी से अवांछित टकराव मोल लेने के बावजूद केजरीवाल मुख्य चुनावी वायदों पर अमल के जरिये मतदाताओं में और बेहतर करने का विश्वास जगाने में सफल रहे।

हालांकि अपनी पीठ खुद थपथपाना व्यावहारिक रूप से आसान नहीं, पर हमारे राजनेता तो कुछ भी करने में समर्थ हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर लगातार दूसरी बार खाता तक खोलने में नाकाम रही कांग्रेस मत प्रतिशत भी गंवाने के बावजूद आप के शानदार प्रदर्शन और उसके जरिये भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए अपनी पीठ खुद थपथपाने लगे। जिस पार्टी ने लगातार तीन कार्यकाल दिल्ली में सरकार चलायी हो, वह लगातार दो विधानसभा चुनावों में खाता तक न खोल सके तो इससे ज्यादा शर्मनाक स्थिति दूसरी नहीं हो सकती, पर लगता है कि कांग्रेस ने ऐसी स्थितियों के लिए खुद को तैयार कर लिया है।

अभी पिछले साल ही लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सीटों पर कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में मत प्रतिशत में पिछले चुनाव से भी नीचे आ गयी, क्योंकि मतदाताओं ने माना कि सत्ता के मुकाबले से बाहर कांग्रेस को वोट देना दरअसल वोट बर्बाद करना होगा। कांग्रेस नेतृत्व भले ही इसे वोट ट्रांसफर बताते हुए अपनी रणनीतिक सफलता करार दे, पर सच यही है कि यह दिल्ली के मतदाताओं की अपनी राजनीतिक समझ थी, वरना कांग्रेस को जाने वाला हर वोट अंतत: भाजपा को मजबूती प्रदान करता।

बेशक पिछली बार से ज्यादा मत प्रतिशत के बहाने भाजपा नेता भी अपनी पीठ खुद थपथपाने में पीछे नहीं रहेंगे, लेकिन यह सच है कि अगर इन चुनावों में कांग्रेस एकदम से रसातल को नहीं चली जाती तो नतीजे इस तरह एकतरफा नहीं आते। निश्चय ही आक्रामक चुनाव प्रचार के जरिये भाजपा अपने परंपरागत समर्थक मतदाताओं को गोलबंद करने में और इसीलिए मत प्रतिशत भी बढ़ाने में सफल रही, लेकिन कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक विधानसभा चुनाव में आप के ही साथ जाने से उसकी मेहनत सीटों में तब्दील नहीं हो पायी।

जाहिर है, कल ही चुनाव परिणाम आये हैं, और इनके बारीक विश्लेषण का सिलसिला लंबा चलेगा, लेकिन कांग्रेस-भाजपा के लिए एक सबक साफ है: बिना विश्वसनीय प्रदेश नेतृत्व के बात नहीं बनेगी। दिल्लीवालों ने आप को नहीं, केजरीवाल के नाम पर वोट दिया है, जैसे कि पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा को मोदी के नाम पर वोट मिला।

कांग्रेस और भाजपा, दोनों राष्ट्रीय दलों की विडंबना यह है कि दिल्ली में प्रभावी-विश्वसनीय नेतृत्व उनके पास नहीं है, जिसके चेहरे पर वोट मांगा जा सके। समाजवादी पार्टी के रास्ते भाजपा में आये भोजपुरी गायक-कलाकार मनोज तिवारी प्रदेश अध्यक्ष तो बनाये जा सकते हैं, पर केजरीवाल का विकल्प नहीं बन सकते।

शीला दीक्षित के निधन के बाद ऐसे ही नेतृत्व संकट से कांग्रेस भी गुजर रही है। निश्चय ही चेहरों पर चुनाव लड़ा जाना दलीय लोकतंत्र के लिए सुखद नहीं माना जा सकता, लेकिन काम के नाम पर वोट मिलना अवश्य शुभ संकेत है, जो राजनीतिक दलों-नेताओं को बेहतर कामकाज के जरिये जन आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए प्रेरित करेगा।

लेखक- राजकुमार सिंह

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