संतोष कुमार। भारत जैसे विशाल देश में अनेक संस्कृतियों और ऐतिहासिक धरोहरों पर हमें अवश्य गर्व है लेकिन देश की मिट्टी को अपने खून-पसीने से सींचने वाले ‘वीरों’ की हमें परवाह नहीं। कोरोना वायरस महामारी ने हमारे सिस्टम का वो चेहरा उजागर किया है जिसे हमने पहले कभी नहीं देखा था। हमारे देश के ये ‘कर्मवीर’ अपनी ही मिट्टी में पराया हो गए। अपने लोग ही इन्हें पहचानने से मना कर रहे हैं।
जिसे हमने अपने ही देश में प्रवासी बना दिया है, उन्हीं की मेहनत पर खड़े महानगरों में हम शान से अपना झंडा बुलंद कर रहे हैं और उन्हें बनाने वाले (जिन्हें हम प्रवासी मजदूर कह रहे हैं) सड़क पर नंगे पांव चलने को मजबूर हैं। देश आज जिस हालात से गुजर रहा है उसका खामियाजा आने वाले वक्त में चुकाएगा। बड़े-बड़े शहरों में शानो-शौकत से जीवन की अठखेलियां लेने वालों को एक दिन पछतावे के सिवा कुछ हासिल नहीं होगा।
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हो जीवन उद्गार प्रिय
इंद्रधनुषी सतरंगीझिलमिल हो नभ पंथकनक थाल में मेघ सजा होहो जीवन उद्गार प्रिय। सुरमई शामआँगन…
देश से अलग-अलग हिस्सों से आ रही तस्वीरें काफी विचलित करने वाली हैं। सरकारी तंत्र की बेगैरत और बेपरवाह नियत में पुलिस ने चार चांद लगाने का काम किया है। ऐसे समय में जब पुलिस को अपने मानवीय चेहरे का परिचय देना चाहिए, वहां वह नंगे पांव सड़क पर चल रहे मजदूरों पर लाठियां भांज रही है। ऐसा लगता है कि पुलिस के अंदर मानवीयता नाम की कोई चीज ही नहीं रह गई है। सिस्टम ने उन्हें बेहताशा अधिकार दे दिया है सबकुछ अपने मनमाने तरीके से करने का।
भूख और प्यास से परेशान मजदूरों को सरकारें भोजन देने के बजाय लाठियां बरसा रही हैं। अपने ही मजदूर भाइयों को यह सरकारी तंत्र पहचानने से इंकार कर रही है। अपने घरों को लौटते मजदूर आने वाले वक्त में गांव की अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी चीजों के लिए लड़ेगा। देश की लचर और महंगा स्वास्थ्य क्षेत्र मजदूरों की और परीक्षा लेगा। मजदूर अपने परिवार के साथ मरने के लिए मजबूर होंगे। सरकारों को आने वाला भयानक कल नजर नहीं आ रहा है लेकिन यह एक दिन यह जरूर दिखेगा।
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मजदूरों का ऐसे विकट समय में अगर कोई साथ दे रहा है तो वह है देश की आम जनता। जो राह चलते मजदूरों को खाना देने का काम कर रही है। सरकारों से तो अब उम्मीद रही नहीं, लेकिन इन लोगों से उम्मीद है। भले ही सरकारें इन मजदूरों का सुध नहीं ले रहीं लेकिन एक आम आदमी ने सरकारों और सिस्टम के मुह पर तमाचा जड़ा है राह चलते मजदूरों की मदद करके।
देश के अलग-अलग हिस्सों से सड़क पर चलते मजदूरों की मौत विचलित करने वाली है। जिस रफ्तार से यह घटना हो रही है वो भी हमारी सिस्टम की नींद नहीं खुलवा पा रही हैं। कई मजदूरों को घर पहुंचने से चंद कदम पहले मौत आ गई तो कईयों का कोई पहचान ही नहीं रहा। वे सड़क, गली और नालों इत्यादि पर तड़पते छोड़ दिए गए।
संख्या का खेल खेलने वाली यह सिस्टम हमें अंधा बना रही है। ताकि हम उन सच्चाईयों को नहीं देख सकें जो हमें अपने देश की वास्तविक तस्वीर की याद दिलाती है। अभी के लिए बस इतना ही। मन में कई तरह के सवाल हैं, जिनके जवाब का इंतजार हमें इस सिस्टम से रहेगा… ✍ – संतोष कुमार

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