कहानी- प्रितिया का फ्रॉक, साधना भूषण की रचना

प्रितिया का फ्रॉक

कहानी- प्रितिया का फ्रॉकलेखिका- साधना भूषण –  प्रितिया का फ्रॉक- बड़ा लड़का होने के बाद मौसी कुछ दिन के लिए मायके में ही रुक गई थी, तो सोचा क्यूं ना इस समय का सदुपयोग करें और सिलाई सीख लें।वैसे तो मौसा जी की सरकारी नौकरी थी, लेकिन कुछ अपने लिए करना था तो यही शुरू किया। उन्होंने आसपास के लोगों से कह दिया कि वो सिलाई करेंगी और बाकी लोगों से कम कीमत लेंगी, क्योंकि वो अभी सीख रही हैं।

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एकाध दिन के बाद ही उनकी पहली ग्राहक प्रितिया की मां आई और बोली हमने सुना है कि आप सिलाई करत हैं। दीदी हमरो बेटी के लिए एक फ्रॉक बना दीजिए। वो खुश हो गई कि मैं खुद के पैसे तो कमाऊंगी। लेकिन चार सोमवार के बाद ही उनके अपने पैर पर खड़े होने का भूत उतर गया। सावन का महीना था और आज शिव जी को जल चढ़ाना था। बहुत बड़ी संख्या में लोग शिव जी को जल दूर से लाकर चढ़ाते थे।

हमारे गांव में भी बहुत सुंदर मंदिर है। लोग दूर- दूर से शिव जी को जल चढ़ाने आते थे। प्रितिया को भी जल चढ़ाने जाना था और उसने वही नई फ्रॉक पहननी थी। जल तो चढ़ाना था, तो कहते हैं ना कि जिसके संस्कार में जो रहता है वो वैसा ही होता है। मंदिर में सबको जल चढ़ाते हुए देखकर प्रीति ही नहीं बल्कि सभी छोटे बच्चे जल चढ़ाते थे और ये बहुत अच्छी बात थी।

मौसी नई- नई टेलर बनी थी। उन्होंने कुछ ज्यादा ही फिटिंग सिलाई कर दी थी। नहाने के तुरंत बाद उसे वो फ्रॉक नहीं आई। वो अपनी मां के पास गई लेकिन वो भी नहीं पहना पाई। गीले बाल में उसकी मां की कोशिशों के बाद भी वह पहन नहीं पाई। अब इकलौती बेटी तो थी नहीं कि उसी के पीछे सारा दिन निकाल दे। उसके 4 और बच्चे थे। उसने कहा, ‘जा जिसने तेरे कपड़े सिले हैं, जाकर उसी से पहन, आखिर मैने 30 रुपए दिए हैं।’

मैने देखा, प्रितिया गीले बाल में अपनी गुलाबी फ्रॉक लिए आ रही थी। मैंने पूछा क्या हुआ तो कहने लगी कि माई बोली है, दीदी ही पहनाएगी। हम सब लोग हंसने लगे। मौसी ने भी कहा, ‘अरे ये तो फिटिंग है, मैं यूं ही पहना दूंगी।’ उन्होंने बड़ी मुश्किल से फ्रॉक खींच- खांच के पहना ही दिया। दिन, सप्ताह बीता। फिर बाबा का दिन सोमवार आया। बाबा के मंदिर में भीड़ थी, लेकिन मैंने देखा नन्ही प्रीति अपनी गुलाबी फ्रॉक लिए नहा-धोकर चली आ रही है। मैंने मुस्कुराते हुए उससे कहा कि इसे पहनाओ फ्रॉक। मौसी ने अनमने ढंग से फ्रॉक पहना कर उसे विदा किया।

अजीब है ये बात लेकिन जब कोई खुद काम करे और खराब हो जाता है तो उस बात को आसानी से मान लेता है। अगर वहीं काम कोई और करे तो हम उसके पीछे पड़ जाते है कि तुमने बिगाड़ा तो अब तुम्हीं ठीक करो। हालांकि प्रीति की माई उतनी पढ़ीं-लिखीं नहीं थी लेकिन ये मानव स्वभाव है कि कई बार हम कितना भी नुकसान करे पर दूसरा करे तो हम उसी के पीछे पड़ जाते हैं। यही मौसी का हाल था।

सावन में 4 या 5 सोमवार होते हैं। हर सोमवार को वो उसको कपड़े पहनाती थी, लेकिन वो बर्दास्त कर रही थी। एक दिन प्रीति को नानी के घर जाना था और वो अपनी एकलौती फ्रॉक पहन के जाती। अब इन सब चीजों में उसकी क्या गलती थी। इतनी मुश्किल से एक फ्रॉक बना, वो भी आ नहीं रही थी। वो हर बार की तरह नहाकर चली आ रही थी कि मौसी के सब्र का बांध टूट गया और वो बिफर गईं।

फिर क्या था। उसकी माई भी आ गई। ‘आपने सिला है तो आप ही पहनाएंगी।’ इस लड़ाई और बहस का तो कुछ मतलब ही नहीं था। फिर ये हुआ कि मौसी ने उसके पैसे दिए और वो अपने घर गई। कुछ दिनों के बाद मौसी भी वापस चली गई। लेकिन कपड़े बहुत बढ़िया बनाती हैं।अब वो अपने लाइफ में सैटल हैं और अपना और सबका नाम रौशन कर रहीं है, पर सिलाई नहीं कर रही हैं।

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