अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस
नई दिल्ली। दुनियाभर में हर साल 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों को बढ़ावा देना है। सदियों से इस समाज में महिला सशक्तिकरण की बातें होती आईं हैं, लेकिन एक सशक्त महिला के साथ पुरूष और इस समाज को कैसे व्यवहार करना है और कैसे रहना है, ये बातें आज भी पुरूष और समाज नहीं सीख पाए। भारत के इतिहास से लेकर वर्तमान तक महिलाओं ने संघर्ष करके अपनी पहचान बनाई है।
हमारे पास अनेकों ऐसी महिलाओं के उदाहरण हैं। रानी लक्ष्मीबाई, पद्मावती, सावित्रीबाई फुले, विजय लक्ष्मी पंडित, मीराबाई, इंदिरा गाँधी, महारानी दुर्गावती, आनंदी गोपाल जोशी, बेगम हजरत महल, सरोजिनी नायडू, कस्तूरबा गांधी, कमला नेहरू, सुचेता कृपलानी, रानी हाडा, चंद्रमुखी बसु, मदर टेरेसा, सुभद्रा कुमार चौहान, रजिया सुल्तान, कल्पना चावला, नीरजा भनोट, रोशनी शर्मा, अरुणिमा सिन्हा, रीता फारिया पॉवेल, मिताली राज, प्रतिभा पाटिल, किरण बेदी, अंजली गुप्ता, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, हरिता कौर देओल, बॉक्सर मैरी कॉम और लक्ष्मी अग्रवाल।
ये वो महिलाएं हैं जिन्होंने विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में भी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान देकर नेतृत्व किया है। इनके अलावा वर्तमान में कई ऐसी महिलाएं भी हैं जो अपने-अपने स्तरों पर हर पल समाज से लड़कर अपनी पहचान स्थापित करने की कोशिशों में लगी हैं। पढाई, घर-परिवार और दफ्तर इन सभी स्तरों पर आज की नारी अहम भूमिका निभा रहीं हैं। महिलाएं जिस ऊर्जा के साथ देश में हो रहे आंदोलनों का नेतृत्व कर रही हैं, वो वाक़ई बदलते भारत की खूबसूरत तस्वीर है…
नारीवादी विचारों का बेहतर उदहारण वो मज़दूर महिलाएं भी हैं जो सड़क किनारें सर पर ईंट उठाती है, सुबह अपने बच्चों को तैयार कर स्कूल भी भेजतीं हैं। दिनभर दिहाड़ी मजदूरी करने के बाद पूरे परिवार के लिए प्रेम से भोजन बनाती हैं और अपने मातृत्व भाव को जीवित रखती हैं…
दूसरी तरफ़ कुछ ऐसी महिलाएं भी हैं जो 2 घंटे मेकअप में लगा देंगी लेकिन स्वयं के लिए 2 रोटी पकाने में उन्हें शर्म आती है (खैर ये उनकी व्यक्तिगत पसन्द और सोच है)। कुछ महिलाएं जिन्हें मौका मिलता है सफल होने का, लेकिन जब कामयाब हो जाती हैं तो समाजिक परिवर्तन का लक्ष्य उनका सपना नहीं रह जाता ? सोशल मीडिया पर और मंचों पर नारीवादी भाषण तो खूब चलते हैं लेकिन अगर उसका आधा भी ज़मीनी स्तर पर काम हो तो नारीवादी विचारों के लक्ष्य को प्राप्त करना आसान हो जाएगा।
लड़कियों को शिक्षा के अधिकार के साथ-साथ ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा भी मिल गया, लेकिन आज भी तुच्छ मानसिकताओं ने बेटियों को शिक्षा से वंचित रखा हुआ है। अगर थोड़ा बहुत पढ़-लिख भी गईं तो शादी का तनाव और फिर बच्चें पैदा करने का दबाव उनपर बनाया जाता है। खुले विचारों कि महिलाओं को रीति-रिवाजों के बंधन ने अब भी जकड़ा हुआ है।
अगर महिलाएं आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी और बच्चे को जन्म देने का फैसला महिलाओं के हाथों में होता तो समाज की तस्वीर बेहतरीन होती। सेक्सुअल हैरासमेंट अकसर महिलाओं के साथ होता आया है। यहां तक कि मासूम बच्चियां भी सुरक्षित नही रहीं। यह सब दर्शाता है कि पितृसत्ता और सामाजिक बुराइयों की जड़ें अभी भी महिलाओं के आत्म सम्मान की दुश्मन बनीं हुईं हैं।
देश निर्भया के दोषियों के लिए फांसी की सज़ा की मांग कर रहा है लेकिन इतिहास से लेकर आज तक कई ऐसी निर्भयाएं हैं जिन्हें इंसाफ नहीं मिला या उनका मामला सामने ही नहीं आने दिया गया। बलात्कार जैसे ज़हर को ख़त्म करने के लिए हमें वैचारिक बदलाव लाने होंगे। किसी शिशु के जन्म से ही और शुरुआती शिक्षा के दौरान से ही हमें उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाना होगा। लड़की को लड़की ना बताकर उसे साथी की तरह देखने और इंसान समझने के गुण सिखाने होंगे।
महिलाएं अगर आज आज़ादी का सपना देख पा रहीं हैं तो वो केवल शिक्षा की वजह से, अधिकतर महिलाओं ने शिक्षा के सहारे घर की दहलीज़ को लांघकर संसार को समझा और देखा। अभी हाल ही में रिलीज़ हुई फ़िल्म “थप्पड़” में एक ऐसी ही सशक्त महिला कि कहानी है जो अनेकों महिलाओं की कहानी को बयां करती है। कुछ कहानियां हकीकत की गहराई होतीं है, जो बरसों से बन्धनों में जकड़ी होती है। एक विरोध कितनी वास्तविकताओं को उजागर करता है, यह इस फ़िल्म से हम बखूबी समझ सकते हैं।
पुरुष और समाज से महिला उत्थान की अपेक्षा करने के बजाय महिलाओं को ख़ुद अपने उत्थान का रास्ता खोजना होगा। स्त्री प्रकृति की सबसे अदभुत रचना होती है क्योंकि स्त्री में मातृत्व भाव होता है। पुरुष और स्त्री अगर समाजिक बुराइयों को साथ मिलकर समझ लें और उनका हल निकालें तो दुनिया में कितनी शांति होगी ना ?
और फिर जिस स्त्री के विचार आज़ाद हों उस स्त्री के सपनों को किसी भी प्रकार के बंधन कैद नहीं कर सकते।
“सपना” ✍
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