आरक्षण की अधिकतम सीमा पर सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों को जारी किया नोटिस

आरक्षण की अधिकतम सीमा

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट आरक्षण की 50 फीसदी की अधिकतम सीमा पर सुनवाई करेगा। सुप्रमी कोर्ट विचार करेगा कि क्या आरक्षण की तय अधिकतम सीमा 50 फीसदी पर पुनर्विचार की जरूरत है। बता दें कि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा इंदिरा साहनी मामले में तय की गई थी।

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कोर्ट संविधान के संघीय ढांचे और राज्यों से जुड़े अधिकारों के कानूनी सवालों पर सभी राज्यों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। कोर्ट यह देखना चाहता है कि क्या संविधान के 102वें संशोधन से राज्यों का पिछड़े वर्ग को आरक्षण देने के लिए कानून बनाने का अधिकार प्रभावित हुआ है।

सुप्रीम कोर्ट इस मामले में 15 मार्च से रोज सुनवाई करेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि तब किसी भी पक्ष का सुनवाई टालने का अनुरोध को स्वीकार नहीं किया जाएगा। बता दें कि सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तय की थी। इस जजमेंट को मंडल जजमेंट भी कहा जाता है।

कोर्ट ने उस समय यह भी कहा था कि अपवाद में आरक्षण की यह सीमा लांघी जा सकती है लेकिन वो दूरदराज के मामलों में होना चाहिए। बता दें कि इस फैसले के बाद कई राज्यों ने आरक्षण की 50 फीसदी सीमा का अतिक्रमण किया है।

हाल ही में यह मामला तब विवादों में आ गया जब मराठा आरक्षण के मामले में 50 फीसदी की सीमा पार करने पर कोर्ट में इसे चुनौती दी गई। बता दें कि महाराष्ट्र सरकार ने राज्य में मराठों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा बताया। राज्य सरकार ने मराठों को शिक्षा और नौकरी में 12 और 13 फीसदी का आरक्षण दिया है। यह आरक्षण पहले से निर्धारित 50 फीसदी आरक्षण से अतिरिक्त है।

महाराष्ट्र सरकार ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय करने के कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार की मांग की है। महाराष्ट्र सरकार ने इसे 30 साल पुराना फैसला बताया है। इसके अलावा संविधान में 2018 में किए गए उस 102वें संशोधन के मुद्दे को भी देखा जाएगा, जो किसी भी राज्य, केंद्रशासित प्रदेश को किसी भी समुदाय को समाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित करने का अधिकार देता है।

महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि इस केस में याचिकाकर्ताओं ने हाई कोर्ट में बहस के दौरान कहा था कि संविधान में 102वां संशोधन और अनुच्छेद 342ए जोड़े जाने के बाद राज्य विधायिका को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समुदाय को आरक्षण देने के लिए कानून बनाने का अधिकार नहीं है।

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